Thursday, April 23, 2015

किसन कन्हाई कसगर

किसन कन्हाई कसगर
उसकी मिट्टी से लौटने के बाद से
मैं बराबर पोंछ रहा हूँ अपने हाथ पाँव सर माथा आँखे पलकें भवें कान नथुने लगता है कुछ सना है
श्मशान घाट से जमुना घाट आया था नहाया था फिर आया घर दुबारा नहाया
जाने कितने पानी से धो डाला है परसों शाम से अब तक
इस शरीर को लगता है अब तक मिट्टी सनी है लेकिन बाहर तन पर न तो
मिट्टी थी न धूल
लगता है उसकी मिट्टी में सना रह गया था मेरा मन
वह तो मिट्टी का जीव था
उसका जीना मरना सिर्फ़ मिट्टी से था
दिन में दो बार ढो कर लाता था
एक एक टोकरी काली चिकनी मिट्टी जमुना की मिट्टी ठीक वहीं
श्मशान के बगल से जमुना कछार की मिट्टी 
दुबला सांवला उधारा
सिर्फ़ एक ऊँची ऊँची मोटी धोती पहने वह मिट्टी मांड़ता रहता था
पहले वह पानी डाल कर कुछ देर मिट्टी को पैरों से खूंदता था
जरुरत पड़ती तो उकडूँ बैठ कर
अपने घुटनों से झुक कर
और फिर मुट्ठियों से ठोक ठोक कर मिट्टी में लस लाता था
लसदार मिट्टी में ही लय थी
उसके जीवन की और
विलय भी उसी में

जब वो मिट्टी को गूँथ रहा होता  लगता कि वह गूँथ रहा है
हर रोज़ अपने को मिट्टी में
ऐसे में कभी कभी उसे ख़याल आता कबीर की अट-पटी बानी का
माटी कहे कुम्हार से
तू का रौंदे मोहे इक दिन ऐसा आएगा
मैं रौंदूगी तोहे
लेकिन वह माथे का पसीना पोंछ कर हथेली में लिये पसीना को
मिला देता था
मिट्टी के गूंथने में


उसके चाक के बायें था
उसका अलाव पीछे की बिरिया से ज़रा पहले और चाक के दाँयें था
गूंथी गयी मिट्टी का पसारा
अलाव में पकाते हुये
अपनी बनायी चीजें वो ध्यान से
देखता रहता था आँच की कलायें
और जब खरी पकने की नौबत आती
उसे याद आ जाती बचपन में पढाई गयी वो कविता पंक्ति
जिसमें उषा काल की लाली की
तुलना खरी ईंट की लाली से
की गई थी
उसने कई बार सोचा
एक ऐसी खरी ईंट
पकाने की अपने अलाव में
लेकिन पता नहीं क्यों नहीं पकायी

वह बहुत कम पढ़ पाया स्कूल में मुश्किल से पाँच दर्जे तक  फिर भी उसे याद थी तब की पढ़ी एक
कविता पंक्ति पुष्प की चाह  देवता या राजा के सिर पर चढ़ने की नहीं फूल चाहता है
बिछ जाना उस पथ पर
गुज़रें जिससे देने आहुति
प्राणों की वीर सपूत  
स्कूल छोड़े ही उसे हो चुकें होंगे
साठ पैंसठ बरस और तब से सिर्फ़ मिट्टी और मिट्टी के खिलौने बर्तन उसकी ज़िन्दगी बन गये थे
उसने तरह तरह की देवी देवताओं की मूर्तियाँ बनायीं हाथी घोड़ा
बैल तोता के
खिलौने बनाये
कलश दिया पारा कुल्हड़ सकोरा सुराही सब बनायीं
उसने लेकिन अपनी मिट्टी से
कभी फूल नहीं बनाया
फूल उसके मन में सुरक्षित था
सिर्फ़ वीर शहीदों के पथ के लिये अगर कभी गणेश लक्ष्मी की मूर्ति में सजावट के लिये फूल बनाने की जरुरत पड़ती वह बना देता था उनके सिर पर दिल के उल्टे आकार का  एक मुकुट जिसे वो
पान मुकुट कहता था

पिछले हफ्ते जब मैं उसके
कच्चे घर के सामने से गुज़रा
पीछे की बिरिया
बिलकुल सूख चली थी
अलाव बुझा पड़ा था
और चाक पर लगी रह गयी मिट्टी सूख कर परतों में चटक रही थी

वह एक भरी बाल्टी उठा कर
रखना चाहता था
वैसे ही ऊँची समेटी हुई धोती और थोड़ी झुक गई कमर वाले
काले तन के सहारे
और बाल्टी उठाने में उसकी
साँसफूल रही थी
मैंने रुक कर राम-राम की
उसने अपनी हथेली को
आँखों के उपर करके देखा
और कमज़ोरी से बोला
भैया राम-राम
उसकी आवाज़ ऐसी लगी मानो
लोटे पर ढंकी हुई छोटी कटोरी
अधभरे लोटे के अन्दर गिर गयी हो और लोटे से पानी उंडेलने में पानी की
आवाज़ के साथ मिल कर
खड़ खड़ कर रही हो
मैं ठिठक कर चढ़ गया  उसके कच्चे चबूतरे पर
शायद वो अभी तक मुझे पहचान नहीं पा रहा था

मैंने देखा कि बरोठे के खुले दरवाज़े के सामने ही-सितार लिये श्वेतवस्त्रा सरस्वती की मूर्ति रखी है
एक तरफ कुछ घोड़े बैल हाथी,तोता मोर के
बने खिलौने और एक बड़ी पुष्ट सफेद गाय के
थनों में मुँह लगाये
दूध पीते बाल कृष्ण की मूर्ति रखी है

अब तक उसने मुझे पहचान लिया था धुंधली आँखें कितनी भी धुंधली हों यादों और आवाज़ के सहारे
पहचान ही लेती हैं
उसने समझ लिया कि सारी रचनायें देख कर बाबू जी
थोड़े अचरज में हैं
अपने आप ही बोला एक स्कूल में सरस्वती पूजा का पर्व
मनाया जाना था
उसका आर्डर था
कार्यक्रम कैंसिल हो गया
तो सारा सामान सरस्वती माता की मूर्ति और बच्चों को बटने वाले पुरस्कार के खिलौने
यहीं धरे के धरे रह गये हैं अब इन्हें लेता ही कौन है
न कोई कुल्हड़ सकोरा लेता है
न कोई सुराही दिया लेता है
भैया सब वक्त की बात है
मिट्टी सचमुच
मिट्टी मोल हो गयी है
अब कौन पूंछता है मिट्टी का सामान कुम्हारी कसगरी तो खत्म समझो बिला जायेगी जल्दी ही
अब तो सिर्फ़ बातें रह गयी हैं मिट्टी की और मिट्टी के गंध की
और मिट्टी की गंध अगर नकली हो तो
असली मारे-मारे फिरती है
एक दफ़े की बात है भैया
पुरानी बात है
पचीस तीस बरस पहले की
मैं एक लालाजी की गद्दी पर
कुछ समान देने गया था  लालाजी के पास कन्नौज के
इत्र वाले पंडित जी आये थे
वे उनसे मुखातिब थे
मैं पास ही बैठ कर
इंतज़ार करने लगा
पंडित जी तरह तरह के इत्र दिखा रहे थे ये हिना है मगरुरे-उस्मानिया
हैदराबाद के निज़ाम का पसंदीदा
ये है लखनऊ के नवाब की पसंद शमामा
और ये है रूहे गुलाब बरतानिया की महारानी की पसंद
शीशी में ही बर्फ की फुकली सी जम जाती है गुलाब की
सबसे महंगी है और ये है मंगल्या चमेली वाली, बेला चम्पा केवड़ा और खस सब हैं लेकिन लालाजी
अब क़द्रदान घट रहे हैं
नई पीढ़ी तो इन्हें देखती भी नहीं
वे तो मस्त है इंटीमेट स्प्रे में
हाँ कभी कभी कोई नया शौकिया मांग लेता है
मिट्टी की गंध वाला इत्र
सुनकर मैं भी थोड़ा सिमट गया अपने आप में जो अपनी रग-रग में रोयें रोयें से मिट्टी की गंध से रचा बसा था लेकिन लालाजी के पोते ने
तुरंत दिलचस्पी दिखाई
और पंडित जी ने एक छोटी शीशी निकाल कर पेश किया
मिट्टी की गंध वाला इतर  मुझे समझ में आ रहा था कि मिट्टी की गंध अब पोर-पोर रोयें रोयें से महसूसने की चीज़ नहीं रह गई है
वो बन्द हो गयी है
काँच की शीशी में अब मिट्टी की गंध मिलती है
बिना मिट्टी को छुये
मिट्टी तो बस मिट्टी मोल है
वह बोलता ही रहा भैया जी आज भी कुछ घर परिवारों की औरतें मंगल काज़ विवाह आदि के
शुभ पर्वों पर आती हैं
चाक पूजने कुछ कुआं पूजने जाती है अब कुआँ ही नहीं मिलता तो
हैंड पम्प पूज कर लौट जाती हैं
मुझे भी अब जाने का वक्त दिखने लगा है
मेरे बाद न ये चाक होगा न चाक पूजा
जिन्हें पूजना होगा प्लास्टिक का बर्तन बनाने वाली मशीन पूज आयेंगी

मैंने देखा वो दुखी हो रहा था
फिर भी ठीक कह रहा था कि
मिट्टी की गंध अब तो
कविता कहानी में भी फरमाइश की चीज़ हो गयी है
मिट्टी को अछूत मानते हुये
खैर देर हो रही थी
मैं उससे राम-राम करके चला आया

दो दिन बाद ही किसी ने कहा कि
वो तो पगला गया है
उसी दोपहर मैं उसे देखने पहुँचा लेकिन उसने न मेरी ओर देखा
न देखने की चेष्टा की
वह एक टीन की पतली पट्टी लिये चाक से सूखी हुई मिट्टी
खरोच खरोच समेट रहा था
खुरची हुई मिट्टी को गुंथी हुई गीली मिट्टी में मिला कर उसने घुटनों के बल बैठ कर
मिट्टी के पसारे में मीसने की कोशिश की और इसी कोशिश में गीली मिट्टी के पसारे में
मुँह के बल गिर पड़ा
एक पल को मैं सनाका खा गया
फिर देखा की वह गीली मिट्टी में लोट रहा है
उसके पूरे शरीर में
सिर से लेकर पैर के तलवों तक में सब कहीं मिट्टी ही मिट्टी से लथपथ वो जाने क्या घुर-घुरा रहा था
लेकिन मुझे सुनायी दे रहा था
तू क्या रौंदे मोह …
बमुश्किल वो उठा और उसी टीन की चाकू नुमा पट्टी से फिर
खुरच-खुरच कर अपने शरीर की मिट्टी की वर्तियाँ बनाते हुये
गूंथने वाली मिट्टी के पसारे में मिलाना शुरू कर दिया फिर अपने अंगोछे को
जैसे तैसे कमर में लपेट कर धोती उतारी
और बाल्टी में डालकर खंगाली निचोड़ी
और बाल्टी की तल छट फिर मिलाली गूंथने वाले मिट्टी के पसारे में

दो मिनट रुक कर उसने गूंथी जा रही मिट्टी से लोंदे उठा उठा कर
अपने माथे अपने सीने से
ठोंकने शुरू कर दिये
और यों ही वह देर तक मिट्टी के तमाम लोंदे बना बना कर अपने माथे और सीने से ठोंकता रहा
मुझे लगा किसी ने ठीक ही खबर दी थी कि वो पगला गया है

मैं वापस चला आया
सोचता हुआ कि मिट्टी का जीव
जब मिट्टी में समाना चाहता है
तब तक दुनिया समझती है पगला गया है

फिर एक खबर फैली कि
उसने अपने घर पर सरस्वती देवी के सामने एक कलश पर
एक दिया रख कर
ऊपर एक पारा टांग दिया है
दिया बिन तेल बाती के जलता है और पारे में चमत्कारी काजल
पर रहा है
अगले दिन एक
नामी विश्वविद्यालय का
एक शोध छात्र आया मेरे पास
उसका शोध विषय था
कविता में किंवदंतियाँ
और वह जानना चाहता था कि
क्या ये सही है कि इस कस्बे में
एक कविता कलश है
जिस पर एक दिया
बिना तेल बाती के
जलता रहता है
और उससे चमत्कारी काजल
पारा जाता है
जिसे आंजने वाले को एक ऐसी दृष्टि कि वह त्रिलोक की हर चीज़
चाहे वो कितनी भी दूर
या छिपी हुई हो
साफ साफ देखी जा सकती है

मैं शोध छात्र की जिज्ञासा सुन कर किंचित मुस्करा भर दिया
लेकिन फिर कहा जाकर खुद देख लो
मैं पता ठिकाना बताये देता हूँ
शोध-छात्र गया और लौट कर बताया सचमुच में उसके घर में एक कलश पर रखा दीपक
बिना तेल बाती के जल रहा है और उसके उपर एक पारा भी है जिसमें काजल भी पारा गया है
लेकिन इस काजल को अभी तो
किसी ने आजमाया नहीं है
न ही वह किसी को इसे छूने की इजाजत देता है
कहता है मिट्टी मईया बतायेगी

परसों जब उसके
न रहने की खबर मिली
और मैं उसकी मिट्टी में जाने लगा तो एक पड़ोसी की
फेंस के बाहर झांक रहे
कुछ फूल तोड़ कर
अपने साथ ले लिये
मिट्टी उठते ही मैंने चुपचाप
उस पथ पर उन्हें बिछा दिया जिस पर से जा रही थी उसकी मिट्टी

जमुना किनारे श्मशान घाट पर
पूरी देर जब तक उसकी चिता जली मैं चुपचाप देखता रहा
जमुना की लहरें और कछार की काली मिट्टी
जिससे जीवन भर कन्हाई की कला कृतियाँ बनती रहीं
दाह समापन के बाद सबके साथ जाकर
यमुना के स्नान घाट पर नहाया
फिर घर लौट कर दुबारा नहाया लेकिन लग रहा है मिट्टी सनी रह गई है
उपर बाहर तन पर तो
कुछ सना नहीं दीखता है
क्यों लगता है कि मिट्टी सनी है
मिट्टी कहाँ से सनी होगी
मिट्टी को मिट्टी लौटा कर
आ रहा हूँ
रुको ज़रा यहाँ कुछ गलती है
लौटाने में गलती है
आदमी लेना तो खूब जानता है लेकिन लौटना नहीं
पूरा तो कभी नहीं लौटाता
जैसा का तैसा भी कुछ नहीं लौटाता ज़रूर कुछ न कुछ रह जाता है लौटाने में
कन्हाई की यादों की थोड़ी सी सूखी मिट्टी
सनी रह गई होगी मेरे मन से
हो सकता है मैंने ही अपना मन
सान दिया होगा उसकी मिट्टी में और अब मैं उसे छुड़ा रहा हूँ
बार-बार छुड़ा रहा हूँ
और मज़े की बात
देखो बाहर ये कव्बे झुंड बना कर उड़ा रहे हैं मेरा मज़ाक
बार-बार चीख रहे हैं
छुड़ाव – छुड़ाव - छुड़ाव


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